एरिक
हॉब्सबाम : प्रतिरोध का इतिहास - दर्शन
एरिक हॉब्सबाम बीसवीं शताब्दी के
सर्वाधिक चर्चित इतिहासकार हैं। उन्होंने
इस शताब्दी के इतिहास लेखन एवं चिंतन को
बहुत दूर तक प्रभावित किया है। एक महत्वपूर्ण इतिहासकार के रूप में उनकी सक्रिय
बौद्धिक उपस्थिति का अनुभव समूची बौद्धिक दुनिया करती रही है। पिछली दो शताब्दियों
(1789-1991) पर केंद्रित उनका इतिहास लेखन इसका ज्वलंत प्रमाण है। चार खंडों में
विभक्त उनकी पुस्तक श्रृंखला क्रमशः ‘THE AGE OF
REVOLUTION’(1789-1848),
‘THE AGE OF CAPITAL’(1848-1875), ‘THE AGE OF EMPIRE’(1875-1914), ‘THE AGE OF
EXTREMS’(1914-1991) के नाम से जानी जाती है जिसका हिंदी
अनुवाद क्रमशः क्रांति का युग, पूँजी
का युग, साम्राज्य
का युग एवं अतिरेकों का युग(दो भाग) शीर्षक से हुआ है। इन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने
पिछली दो सदियों का सम्यक् ऐतिहासिक
मूल्यांकन किया है। उनके द्वारा किया गया लेखन एक तरफ जहां अपने पाठकों को दो सौ
वर्षों के वैश्विक इतिहास से साक्षात्कार कराता है एवं नवीन इतिहास दृष्टि निर्मित करता है वहीं
दूसरी तरफ इतिहास जैसे जटिल विषय को इतने रोचक तरीके से पेश करता है कि पाठकों को
इतिहास के साथ-साथ साहित्य पढ़ने का भी सुख मिलता है। इतिहास चिंतन की परंपरा में
वे उस वर्ग के प्रतिनिधि माने जाते हैं जिसके पूर्व पुरुष कार्ल मार्क्स एवं मार्क
ब्लाख सरीखे बड़े चिंतक हैं। बतौर मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम की जितनी
चर्चा हुई है उतनी एक इतिहास चिंतक के रूप में नहीं। प्रस्तुत शोध-पत्र में उनके
इतिहास चिंतन पर विचार किया जाएगा। इस विषय पर केंद्रित उनकी पुस्तक है –‘ON
HISTORY’ जिसका हिंदी अनुवाद ‘इतिहासकार
की चिंता’
शीर्षक से हुआ है। इस पुस्तक के आधार पर हम जानने का प्रयास करेंगे कि जब कोई इतिहासकार
लेखन के क्षेत्र में हाथ बढ़ाता है तो उसके सामने कैसी-कैसी समस्याएँ आती हैं ,उसे
किन- किन प्रश्नों पर विचार करना पड़ता है, क्या-क्या
सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं और उसका उत्तरदायित्व कितना बड़ा हो जाता है?
उसके
लेखन का समकालीन समाज के वर्तमान और भविष्य पर गहरा असर पड़ता है। बक़ौल एरिक
हॉब्सबाम-“मुझे लगता था कि आणविक भौतिकी के विपरीत इतिहास कम से कम कोई
नुकसान नहीं पहुंचा सकता । अब मैं जानता हूँ कि ऐसा हो सकता है। हमारे अध्ययनों को
उसी तरह बम के कारखानों में बदला जा सकता
है जिस तरह आयरिश रिपब्लिकन आर्मी ने रासायनिक फर्टिलाइजर को विस्फोटक में बदलना
सीख लिया था।”(इतिहासकार की चिंता, ग्रंथ
शिल्पी,प्रथम
हिंदी संस्करण, पृ-21 ) जाहिर है कि इतिहास लेखन
करते समय एक इतिहासकार को बहुत सारी सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं,
अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाने का खतरा बना रहेगा।
इतिहास पर विचार करने के क्रम में
प्रत्येक पाठक के मन में कई तरह की जिज्ञासा और प्रश्न उठ खड़े होते हैं ,जैसे-इतिहास
क्या है? इसकी उपयोगिता क्या
है? अर्थात् कोई पाठक इतिहास का
अध्ययन क्यों करे? इतिहास
लेखन की प्रक्रिया क्या है, इसकी
बारीकियाँ क्या हैं? हम
कह सकते हैं कि इतिहास अतीत का वह सार
संकलन है जिसमें संबंधित समाज की सामूहिक स्मृति सुरक्षित रहती है। इतिहास ही वह
माध्यम है जो हमें बतलाता है कि मानव सभ्यता का विकास किस तरह हुआ,इसके
लिए हमारे पूर्वजों ने कितनी कठिनाइयाँ सहीं। आज जो हम अपने को इतना सभ्य और
सुसंस्कृत कहते हैं वो किस तरह बने । बंदर से मनुष्य बनने तक की यात्रा हमने कैसे
तय की । डॉ. लाल बहादुर वर्मा के अनुसार- “सामान्य कौतूहल-तुष्टि के
अतिरिक्त अपने अतीत के बारे में जानकर शायद हम अपने अहम को अधिक सुरक्षित पाते हैं
और यूँ ‘काल’की
पहचान बनाने की कोशिश करते हैं,क्योंकि
एक अतीत ही है जो समय और स्थान में हमारी स्थिति स्पष्ट करता है तथा अपनी अथाह विरासत
से हमारा परिचय कराता है।”(आधुनिक भारत का इतिहास,सं-रामलखन
शुक्ल,हिंदी
माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय,प्रथम
संस्करण-1987,पृ-01)अर्थात
‘हम कौन थे ,क्या
हो गए,और क्या होंगे अभी’को
जानने के लिए इतिहास से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है। इतिहास की उपयोगिता को और
स्पष्ट करते हुए एरिक हॉब्सबाम ने लिखा है “इतिहास एक सुसंगत बौद्धिक
परियोजना पर लगा है और उसने यह समझने में तरक्की की है कि दुनिया आज जैसी है वैसी
कैसे बनी।”( इतिहासकार की चिंता ,पृ-15)
यह बौद्धिक परियोजना बिना एक सचेत इतिहासकार के संभव नहीं है क्योंकि “इतिहासकार
अनुभव के स्मृति बैंक होते हैं सिद्धांततः तमाम अतीत इतिहास होता है। अतीत यानि अब
तक घटी कोई भी बात । इनमें से काफी कुछ इतिहासकारों के क्षेत्रों में नहीं
आता ।”(इतिहासकार की चिंता,
पृ-43) इतिहासकार उस कुशल गोताखोर की तरह होता है जो
अतीत के समुद्र से आवश्यक तथ्यों के मोती खोज कर लाता है। इतिहासकार के लिए वही
तथ्य महत्वपूर्ण होता है जिसने इतिहास को गति देने का काम काम किया है अथवा उसे
अवरुद्ध करने की कोशिश की है। क्योंकि प्रत्येक समाज में एक ऐसा वर्ग होता
है जो समाज को स्थिर रखना चाहता है । यह उस समाज का वर्चस्वशाली वर्ग होता है । यह
जिस वर्ग पर वह आधिपत्य जमाना चाहता है उसके बीच भी अपनी मान्यताओं को स्थापित
करने की कोशिश करता है। वहीं समाज का जो दूसरा वर्ग होता है वह समाज को गतिशीलता
की ओर ले जाने का प्रयास करता है। वह सामाजिक जड़ता के खिलाफ लड़ता है। ऐसी
स्थिति में एक सशक्त इतिहासकार का दायित्व
होता है कि वह उन तत्वों की सही पहचान करे
जो इतिहास को गति प्रदान करने का काम करते हैं क्योंकि इसके बगैर जन इतिहास
लिखना संभव नहीं है। आज भी बौद्धिक समाज के पास अपने अतीत को समझने के लिए इतिहास
से बेहतरीन औज़ार नहीं है। लेकिन इतिहासकार का दायित्व सिर्फ यह बताना नहीं है कि ‘वास्तव
में क्या हुआ था’बल्कि
यह दिखाना भी है कि ‘उस
घटना के बारे में आमजन क्या सोचते थे’।
हम इतिहास लेखन की उस कोटि से भी परिचित हैं जिसमें सिर्फ राजा- महाराजा,
सेठ-सामंतों को ही इतिहास को गति प्रदान करने
वाला तत्व माना जाता था । समाज का वह वर्ग जो हाशिये पर था उसके लिए इतिहास में
कोई स्थान नहीं था। वे इतिहासकार अपने इतिहास को जहाँ से देख रहे थे वहाँ से
उन्हें हाशिये पर स्थित वर्ग कीड़े-मकोड़े की तरह लगते होंगे।
इतिहास के एक खास दौर में कुछ प्रजातियों को पहचान की संकट से जूझना पड़ा । इसके
अन्यान्य कारण थे- कभी विस्थापन के कारण तो कभी
एक राष्ट्र का दूसरे में विलय के कारण । यह स्थिति साम्राज्यवाद से लेकर दूसरे
विश्व युद्ध के बाद तक विशेष रूप से देखने को मिलती है।पहले विश्वयुद्ध के बाद तक
यूरोपीय इतिहास में हम देखते हैं कि “उनमें कई देश तो ऐसे हैं जो इतिहास में
कभी थे ही नहीं। आधुनिक अर्थ में जिसे स्वतंत्र राष्ट्र कहा जाता है वह स्थिति उनकी नहीं थी। ........
लेम्बेर्ग या चेर्नोविट्ज में मेरी उम्र का बाशिंदा चार देशों का नागरिक रहा
होगा।”(पृ-18)ऐसी विडंबनात्मक स्थिति में वे किस तरह से स्वयं को
परिभाषित करते होंगे । ऐसे में वे कितनी
यंत्रणा का अनुभव करते होंगे इसे एरिक हॉब्सबाम इस वक्तव्य से स्वतः समझा जा सकता है
।भारतीय इतिहास का कोई अध्येता भारत-पाक विभाजन के उस घृणित ऐतिहासिक क्षण को कैसे
भूल सकता है जब लाखों लोगों के जीवन को संकट की स्थिति में डाल दिया गया। जिन्हें
भारत से पाकिस्तान जाना पड़ा अथवा पाकिस्तान से भारत आना पड़ा,
उनकी
स्थिति कितनी हृदय विदारक थी उसे आज हम जानते हैं। आज भी बांग्लादेश के वे लोग
जिन्हें या तो बांग्लादेश छोड़ना पड़ रहा है या छोडने को मजबूर किया जा रहा है,
भारत
आने पर उनकी स्थिति और कितनी त्रासद हो जाती है उसे हम देख और समझ रहे हैं। उन
लोगों के सामने सबसे बड़ा सवाल यही था और है कि वे अपने अस्तित्व और इतिहास को किस
रूप में याद रखें। यह उनके जीवन-मरण का सवाल बना हुआ है। कहीं वे ‘मुहाजिर’के
नाम से जाने जाते हैं तो कहीं उन्हें ‘रिफ़्यूजी’
कहकर
दुतकारा जाता है । कुछ ऐसी ही स्थिति प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर बहुत बाद तक यूरोप
में देखने को मिलती है,जहाँ
बड़े पैमाने पर लोगों को अपना देश छोड़कर विस्थापित होना पड़ा जिसका मार्मिक चित्रण
कई बड़े साहित्यकारों ने किया है। इस विडंबनात्मक स्थिति का उनके चिंतन और लेखन पर
क्या प्रभाव पड़ता है उसे हम एडवर्ड सईद सरीखे विचारकों को पढ़कर जान सकते
हैं।
ऐसी ही स्थिति में वस्तुनिष्ठता का
प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है। क्या कोई इतिहासकार अपने दृष्टिकोण में वस्तुनिष्ठ
हो सकता है?इस प्रश्न पर विचार करने के
क्रम में हम पाते हैं कि एक इतिहासकर तथ्य के स्तर पर तो वस्तुनिष्ठ हो सकता है किंतु
व्याख्या और विश्लेषण के स्तर पर यह संभव नहीं है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से भी
समझा जा सकता है ,जैसे –‘जालियाँ
वाला बाग हत्याकांड’जैसी
घटना हुई थी कि नहीं इस पर किसी भी पेशेवर इतिहासकार को शायद ही संदेह हो सकता है,
किंतु
अपने विश्लेषण में एक इतिहासकार दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण रख सकता है। आखिरकार
इतिहासकार भी एक मनुष्य ही है जो समाज के अन्य लोगों की तरह अपने देश,
काल, समय,
परिस्थिति की उपज होता है। किसी भी व्यक्ति के दृष्टि निर्माण में इन तथ्यों का प्रभावकारी
महत्व होता है। वहीं से उसकी चेतना निर्मित होती है जिससे दृष्टिकोण का निर्माण
होता है। इसलिए महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इतिहासकार अपने इतिहास को कहाँ से देख
रहा है।
सामान्य तौर पर इतिहास को इसलिए
महत्वपूर्ण माना जाता है कि इसके माध्यम
से हम अपने अतीत को जान सकते हैं,
उससे सीख लेकर अपने वर्तमान को व्यवस्थित कर सकते हैं और उसी के आधार पर एक बेहतर
भविष्य की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं। इस संदर्भ में एरिक हॉब्सबाम कहते हैं “वैसे
तो भविष्य का खाका खींचने की सैद्धान्तिक जरूरत नहीं होती लेकिन भविष्यवाणी करने या मॉडल पेश करने की मांग
इतनी जबरदस्त होती है कि इससे पीछा छुड़ाना कठिन हो जाता है।”(पृ-35)लेकिन
क्या ऐसी स्थिति में इतिहास हमारी कोई सहायता कर भी पाता है कि नहीं। वास्तविक
स्थिति तो यह है कि “जब हमें इतिहास की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी वह
हमारी मदद करना बंद कर देता है।”(पृ-37) क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि हम जिस तरह के प्रश्नों के साथ इतिहास के सामने मौजूद होते हैं उनका उत्तर उसके
पास हो ही। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हमारे समाज के सामने आज जैसी परिस्थितियाँ
मौजूद हैं वैसी कोई परिस्थिति इतिहास के
सामने इससे पहले आई ही हो यह जरूरी नहीं है। इसीलिए एरिक हॉब्सबाम कहते हैं “हम अपने अतीत से
उन सवालों का सीधा जवाब नहीं मांग सकते जो उससे पूछे नहीं गए। वैसे अतीत ने जो कुछ
पीछे छोड़ दिया है उसमें से इतिहासकार के अपने कौशल का प्रयोग कर हम परोक्ष जवाब
निकाल सकते हैं ।”(पृ-57)अर्थात् विवेक ही वह माध्यम है जिसके
द्वारा हम अपने अतीत में वर्तमान समस्याओं का भी अप्रत्यक्ष रूप से समाधान खोज
सकते हैं। लेकिन सामान्यतः यह होता है कि जब हम भविष्य का कोई भी रूपरेखा
बनाने में अपने को असमर्थ पाते हैं वैसी स्थिति में अतीत को ही भविष्य पर
प्रक्षेपित करने लगते हैं । जिस प्रकार से प्रत्येक समाज का अपना इतिहास होता है
उसी प्रकार उसका अपना यूटोपिया भी होता है। समूची दुनिया में शायद ही कोई ऐसा समाज
होगा जिसका कोई यूटोपिया न हो। हर समाज का अपना एक आदर्श होता है जिस ओर
वह अग्रसर होना चाहता है। किंतु यूटोपिया का स्वरूप भी उस समाज के वर्तमान स्वरूप
पर निर्भर करता है। यदि समाज परिवर्तनशील है तो उसके यूटोपिया में नए जीवन मूल्यों
के लिए स्पेस बना रहता है। किंतु यदि समाज परंपरागत है तो वह अपने अतीत को ही थोड़ा
बहुत बदलकर अपने लिए यूटोपिया निर्मित कर लेता है। इस संदर्भ में एरिक हॉब्सबाम
कहते हैं “अतीत की किसी न किसी धारणा के आधार पर
भविष्य के बारे में अनुमान लगाना मनुष्य की आदत है । वे इससे पीछा
नहीं छुड़ा सकते। सार्वजनिक नीतियों की तो
बात ही छोड़िए ,सचेत
मानव जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं में भी
इसकी जरूरत पड़ती है। वे इससे पीछा नहीं छुड़ा सकते।”(पृ-57)किंतु
अतीत की नींव पर भविष्य का स्वप्नमहल खड़ा करना अलग बात है और अतीत को ही भविष्य
में प्रक्षेपित कर देना बिल्कुल दूसरी बात है। जो लोग अतीत को ही भविष्य में
तब्दील कर देना चाहते हैं या फिर अपने
अतीत में ही जीते रहते हैं उन्हें पता नहीं है अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम अपने
अतीत को फिर से नहीं पा सकते क्योंकि “अगर कोई घड़ी की सूइयाँ वास्तव में पीछे की
ओर घुमाना चाहे तो भी पुराने दिन वापस नहीं आ सकते । जो आ सकता है वह सचेतन अतीत
की औपचारिक व्यवस्था के कुछ हिस्से ही होंगे । लेकिन उसका भी काम बदल चुका होगा।”(पृ-31)बदलाव
तो सुनिश्चित है चाहे उसकी दिशा जो भी हो। कम से कम आज तक का मानव इतिहास तो हमें यही सिखाता है।ऐसी स्थिति में
वह समाज या व्यक्ति जो अतीतजीवी होता है वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन को संदेह
की निगाह से देखता है । बदलाव का यदि उसके जीवन से सीधा संबंध नहीं है तो वह उसे
थोड़ा ना नुकुर के बाद स्वीकार कर लेता है ।लेकिन बदलाव का सीधा संबंध यदि उसके
जीवन से है तब तो वह उसका विरोध करता
है।इसलिए हम देखते हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए बदलावों का शायद ही
बृहद स्तर पर विरोध देखने को मिलता हो,किंतु
सामाजिक मूल्यों में आए परिवर्तन के विरोध में बोलने वालों की कोई कमी नहीं है।भारत
में जब कम्प्यूटर का आगमन हुआ तो लोगों ने उसपर अपना संदेह जताया था और उसके पीछे उनकी
चिंता जायज भी थी। क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे बेरोजगारी की समस्या बढ़ेगी।
लेकिन हम देखते हैं कि कम्प्यूटर के आगमन से जहां कई व्यक्तियों का काम एक ही
व्यक्ति करने लगा,
वहीं उससे रोजगार के नए-नए क्षेत्रों का भी निर्माण हुआ। जो बाबा लोग पुरातन
भारतीय जीवन पद्धति के झंडाबरदार हैं वही आज टी.वी.चैनलों पर सर्वाधिक छाए हुए
रहते हैं। तमाम तरह की वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी से लैस होकर धर्म ,अध्यात्म,त्याग
और तप की महत्ता पर प्रवचन झाड़ते रहते हैं। बक़ौल एरिक हॉब्सबाम “विज्ञान
और तकनीक जैसे क्षेत्रों में नयापन या लगातार नवाचार को भी तुरंत स्वीकार कर लिया गया
क्योंकि इनमें नयापन आने से मानवेतर प्रकृति पर मनुष्य का नियंत्रण बढ़ता है और
इससे पारंपरिक समाजों को भी साफ तौर पर फायदा होता है। क्या कभी साइकिल या ट्रांजिस्टर
रेडियो के खिलाफ विरोध हुआ है? दूसरी तरफ
कुछ सामाजिक-
राजनीतिक नवाचारों से कुछ लोग आकर्षित हो सकते हैं। कम से कम संभावना के बतौर ही ।
फिर भी नवाचार (तकनीकी नवाचार समेत)के सामाजिक और मानवीय परिणामों का अधिक
प्रतिरोध होता है।”(पृ-33)इसलिए आज किसी भी धारा का इतिहासकार इस बात से इन्कार नहीं
कर सकता कि मानव सभ्यता ने प्रगति की है , इसकी
दिशा भले ही भिन्न-भिन्न रही हो . इस तथ्य
को माने बगैर इतिहास के महत्व को नहीं समझा जा सकता है। इतिहास को समझने का इससे
बेहतर तरीका और है भी नहीं।
कार्ल मार्क्स की महत्ता इसी बात को लेकर है कि उन्होंने
ही सर्वप्रथम इतिहास को इस तरह से समझने का प्रयास किया । उन्होंने ही इतिहास की
पूरी विकास प्रक्रिया को एक खास पद्धति पर कसने की कोशिश की। एरिक हॉब्सबाम के
अनुसार “यहीं इतिहासकारों के लिए कार्ल मार्क्स की बड़ी अहमियत बनती है। इसलिए कि
वही थे जिन्होंने इतिहास की अपनी अवधारणा और अपने विश्लेषण को इस आधार पर खड़ा किया
। अब तक अन्य किसी ने ऐसा नहीं किया है। ”(पृ-50)कार्ल मार्क्स इतिहास
लेखन के लिए अपरिहार्य हैं क्योंकि उनके द्वारा विकसित ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’, ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ , ‘आधार और अधिरचना’एवं ‘वर्ग संघर्ष’ जैसे सिद्धांतों के
आधार पर ही इतिहास को उसके सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया जा सकता है।“मार्क्स
के विचारों की अपार शक्ति हमेशा इस बात में रही है कि मार्क्स ने सामाजिक
संरचना की मौजूदगी और उसकी ऐतिहासिकता पर ज़ोर दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो
परिवर्तन की उसकी आंतरिक गतिकी पर।”(पृ-178) उस आंतरिक
गतिकी को सही-सही तब तक नहीं समझा जा सकता और न ही उसकी वैज्ञानिक व्याख्या ही
संभव है जब तक कि उसके पीछे कार्य करने वाले सूत्र को वैज्ञानिक और तार्किक कसौटी
पर कस नहीं लिया जाय। वैज्ञानिक और तार्किक कसौटी का अर्थ यहाँ ‘कार्य-कारण
संबंध’ से है।कार्य-कारण संबंध को
स्पष्ट किए बिना किसी भी अवधारणा अथवा तथ्य को विश्वसनीय कैसे माना जा सकता है।
इसी कार्य-कारण संबंध के अभाव के कारण देकार्त ने “इतिहास को अविश्वसनीय कहा था।”.
मार्क्स
ने इतिहास को इसी कसौटी पर कसने का महान कार्य किया। वैसे मार्क्स की कुछ रचनाओं को यदि छोड़ दिया जाय तो
उन्होंने एक पेशेवर इतिहासकार के रूप में इतिहास लेखन नहीं किया । उनके द्वारा किए गए कुछ समसामयिक लेखन एवं ‘फ्रांस
में वर्ग- संघर्ष’ और
‘लुई
बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर’जैसी
कुछ रचनाएँ ही ऐसी हैं जिन्हें इतिहास संबंधी लेखन कहा जा सकता है। किंतु इसे खुद
मार्क्स ही प्रतिनिधि रचनाएँ नहीं मानते थे। वस्तुतः जिसे इतिहास को समझने
की कुंजी कहा जाता है उसका आधार मार्क्स के द्वारा किया गया सैद्धान्तिक एवं
राजनीतिक लेखन में है। अपने सैद्धान्तिक एवं राजनीतिक चिंतन के माध्यम से ही
मार्क्स ने इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण का सूत्र विकसित किया था। ऐतिहासिक
भौतिकवाद का आधार बिन्दु यही चिंतन है । इसलिए एरिक हॉब्सबाम कहते हैं “अपनी
परिपक्व रचनाओं में मार्क्स ने जान बूझकर इतिहास का अध्ययन उल्टे क्रम से किया था
। उन्होंने शुरुआत ही की थी विकसित पूँजीवाद के अध्ययन से। ‘मनुष्य’उनके
लिए ‘बंदर’की
शारीरिक रचना को समझने का सूत्र था। बेसक यह कोई अनैतिहासिक प्रक्रिया नहीं है।
इसका अनकहा मतलब यह है कि अतीत को सिर्फ या मुख्य रूप से उसके अपने अनुरूप ही नहीं
समझा जा सकता।”(पृ-191)यह प्रक्रिया इसलिए भी सही है
क्योंकि मार्क्स के समय में इतिहास को समझने एवं विश्लेषित करने के जितने तकनीक
मौजूद थे या फिर उस समय तक ज्ञान विज्ञान का जितना विकास हो चुका था ये सब पहले
उसी तरह मौजूद नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी चिंतक के लिए
सबसे बड़ी समस्या उसका खुद का समय होता है, वह
स्वयं जिसका हिस्सा भी होता है । कोई भी चिंतक अपने समय और समाज की समस्याओं को
समझे बगैर अपने चिंतन में प्रवीण नहीं हो सकता है और न ही उसके चिंतन का दूरगामी
प्रभाव ही पड़ सकता है। अपने समय और समाज से ही उसकी चेतना निर्मित होती है। वैसे
मार्क्स के द्वारा की गई व्याख्या से पर्याप्त असहमति हो सकती है लेकिन उनके
द्वारा विकसित ‘ऐतिहासिक
भौतिकवाद’से
नहीं क्योंकि यह इतिहास की व्याख्या नहीं है बल्कि इतिहास को व्याख्यायित करने का
अमोघ सूत्र है। बक़ौल एरिक हॉब्सबाम “इतिहास की आम धारा
को सही ठिकाने लगाने के आकांक्षी ज़्यादातर लोग मर्क्सीय संवर्गों का इस्तेमाल
करेंगे या उसके किसी परिवर्तित रूप का। इसलिए कि उनके विकल्प के बतौर कुछ खास है
ही नहीं।”(पृ-189)इतिहास लेखन में ऐतिहासिक भौतिकवाद का क्या महत्व है इसे एरिक
हॉब्सबाम के इस बयान से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
इतिहास लेखन और चिंतन के
परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हम पाते है कि मार्क्सवाद की गलत और अतार्किक व्याख्या
भी कम नहीं हुई है।इस तरह की अतार्किक व्याख्या के लिए गैर मार्क्सवादी जितने
जिम्मेदार हैं तथाकथित मार्क्सवादी भी उससे कम जिम्मेदार नहीं हैं। ऐसे
मार्क्सवादियों को एरिक हॉब्सबाम ‘भद्दा
मार्क्सवादी’ कहते हैं जिन्होंने
मार्क्सवाद को अपनी सुविधा के अनुसार सामान्यीकृत कर दिया। यदि हम आधार और
अधिरचना के सम्बन्धों पर विचार करें तो पाते हैं कि सामान्यतः उत्पादन की पद्धति एवं
आर्थिक तत्वों को आधार माना जाता है और संस्कृति को अधिरचना का क्षेत्र माना जाता
है जिनमें राजनीति,
कानून व्यवस्था आदि आते है। लेकिन वास्तविकता यह है कि आधार और अधिरचना को स्पष्ट
रूप से अलगाया नहीं जा सकता । ये दोनों एक दूसरे से अंतर्गुफित हैं। बक़ौल एरिक
हॉब्सबाम “आधार से अधिरचना का अंतर कर पाना नामूमकिन है। इसकी आंशिक वजह यह है कि
उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों की सामाजिक संरचना संस्कृति और अवधारणाओं से बनती है
जिन्हें उन सम्बन्धों तक सीमित नहीं किया जा सकता। एक और आपत्ति यह होगी कि
उत्पादन की कोई खास पद्धति किन्हीं खास किस्म अवधारणाओं के अनुकूल होती है। इसलिए
उन्हें आधार तक सीमित कर उनकी व्याख्या नहीं कि जा सकती।”(पृ-195)इसलिए
हम देखते हैं कि दो भिन्न-भिन्न समाजों का भौतिक आधार एक जैसा होते हुए भी उनमें
सांस्कृतिक भिन्नता होती है जिसके कारण हम
एक समाज को दूसरे से भिन्न पाते हैं और यह
भिन्नता तो इस हद तक देखने को मिलती है कि “दुनिया के बारे में लोगों के
खयालात उनके सामाजिक अस्तित्व के स्वरूपों को तय करते हैं। उस हद तक तो करते ही
हैं जिस हद तक लोगों के सामाजिक अस्तित्व के स्वरूप उनके खयालात को बनाते हैं ।
” (पृ-195) एरिक हॉब्सबाम के
इस वक्तव्य से और कुछ स्पष्ट हो या न हो किंतु इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि
सिर्फ आधार ही अधिरचना को प्रभावित नहीं करता बल्कि अधिरचना भी आधार को प्रभावित करती
है। वैसे भी मार्क्स के लिए “उत्पादन की असली प्रक्रिया मार्क्स एंगेल्स के लिए
खुद जीवन का भौतिक उत्पादन भर नहीं बल्कि इससे कुछ व्यापक है। एरिक वुल्फ़
की उचित प्रस्थापना का इस्तेमाल करें तो यह प्रकृति ,काम,
सामाजिक श्रम और सामाजिक संगठन के बीच परस्पर निर्भर सम्बन्धों का जटिल समूह
हैं।”(पृ-193) एरिक हॉब्सबाम ने इन तथ्यों के आलोक में उन तथाकथित विद्वानों को
रेखांकित करने का प्रयास किया है कि
मार्क्स द्वारा किए गए चिंतन की वे जिस
तरह से व्याख्या करते हैं वह खुद मार्क्स के साथ तो अन्याय है ही,एक किस्म का
बौद्धिक अपराध भी है।
इसी तरह इतिहास और मिथक घाल- मेल के माध्यम से
कुछ लोग इतिहास का दुरुपयोग करते हैं। इतिहास के दुरुपयोग के अनेक उदाहरण देखे जा
सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में अनेक देशों में यह प्रवृत्ति खूब उभरकर
सामने आई है। भारत में तो कुछ और भी ज्यादा । इतिहास के किसी गंभीर अध्येता के लिए
यह चिंता का विषय है।हॉब्सबाम इस प्रवृत्ति को बखूबी पहचानते हैं और इसके खतरे की
ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं । इतिहास और मिथक के घालमेल से बचकर पेशेवर
इतिहासकारों को सचेत होकर इतिहास लेखन
करना चाहिए क्योंकि “पेशेवर
इतिहासकारों के लिए समस्या यह है कि उनका विषय महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यों को
अंजाम देता है ................ और इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत माल की जरूरत गैर
अकादमिक लोगों को होती है और वही उसका सबसे बड़ा और निर्णायक रूप से बाजार होते हैं
। ”(पृ-313) इस इतिहास के ग्राहक वे लोग भी
होते हैं जिनका वस्तुतः इतिहास और उसकी प्रामाणिकता से दूर दूर तक संबंध नहीं होता है। ऐसे लोग अथवा संगठन इतिहास
का दुरुपयोग अपनी स्वार्थलोलुपता के लिए करते हैं। इसलिए उनके लिए वही इतिहास
अच्छा इतिहास है जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि होती हो । चाहे वह तथ्यात्मक रूप से
कचरा ही क्यों न हो। जब इस देश में पी.एन.ओक जैसे लोग हों तब तो कहना ही क्या। इसका
सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारे देश में ही मौजूद है। हमने देखा है कि किस तरह
से हमारे ही देश के एक राजनीतिक संगठन ने मिथक को इतिहास का रूप देकर ‘बाबरी
मस्जिद विध्वंस’ जैसी घटनाओं को अंजाम दिया।
इसलिए एरिक हॉब्सबाम कहते हैं कि “राजनीतिक या विचारधारगत दावों के ऐतिहासिक
सत्यापन की बड़ी भारी अहमियत हो सकती है अगर ऐसे दावों का आधार ऐतिहासिक ही है।”(पृ-316)
आज
हमलोग अच्छी तरह से जानते हैं कि बाबरी विध्वंस का आधार मिथकीय इतिहास को ही बनाया
गया। इस घटना को अंजाम देने के पीछे यह “ दावा पेश किया गया था कि अयोध्या शहर ‘भगवान’
राम
की जन्मभूमि है । इसी वजह से एक हिन्दू पवित्र स्थल पर मुसलिम आक्रांता बाबर
द्वारा कथित रूप से एक मस्जिद बनवाया जाना। मुसलमानों द्वारा हिन्दू धर्म का अपमान
और ऐतिहासिक अत्याचार था इस मस्जिद को ध्वस्त कर उसकी जगह मंदिर बनाया जाना जरूरी
था। ...........इस दावे का कोई ऐतिहासिक आधार था ही नहीं।”(पृ-316) इसी मिथक को
इतिहास के रूप में परोसा गया जिसके कारण स्थिति कितनी विकराल हो गई थी उसे आज अलग
से कहने और समझने की जरूरत नहीं है। हम जानते हैं कि मिथक जन स्मृति का
हिस्सा होता है। खासकर परंपरागत समाज में मिथक का महत्व इतिहास से कतई कम नहीं होता।
इसलिए उसे अलग से समझाने की जरूरत नहीं होती।इससे जनता के बीच आम सहमति बनाने में
भी आसानी होती है। आज भी यदि हम अपने गाँव के किसी व्यक्ति से यदि यह कहें
कि राम एक मिथकीय चरित्र है न कि ऐतिहासिक नायक तो उनके ऊपर इस बात का कोई प्रभाव
नहीं पड़ने वाला। इसके पक्ष में हम भले ही सैकड़ों इतिहास की प्रामाणिक किताबों को
रख दें । यह स्थिति सिर्फ ग्रामीण जनता की ही नहीं है जिनके पास आज भी पढ़ने-लिखने
के उचित संसाधन मौजूद नहीं हैं,बल्कि
इसमें वे शहरी लोग भी शामिल हैं जिनकी
शिक्षा-दीक्षा अच्छी तरह से हुई है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि हमें बचपन से ही
मिथक को ही इतिहास के रूप में पढ़ने –समझने का आदी बना दिया जाता है।इस संदर्भ में डॉ.
राम मनोहर लोहिया के इस विचार से
मिथक की शक्ति को सद्यःसमझा जा सकता है-“गोवर्धन पर्वत का किस्सा जिस रूप
में प्रचलित है उस रूप में झूठा तो है ही,साथ-साथ
न जाने कितने और किस्से जो कितने और आदमियों के रहे हों,एक
कृष्ण अथवा राम के साथ जुड़ गए हैं। जोड़ने वाले को कमाल हासिल हुआ।यह भी हो सकता है
कि कोई न कोई चमत्कारिक पुरुष राम और कृष्ण हुए हों। चमत्कार भी उनका संसार के
इतिहास में अनहोना रहा हो। किंतु उन गाथाकारों का यह काम अनहोना चमत्कार नहीं है……..
आज के हिंदुस्तानी राम और कृष्ण की गाथाओं की
एक-एक तफसील को चाव से और सप्रमाण जानते हैं,
जबकि ऐतिहासिक बुद्ध और अशोक उनके लिए धुँधली स्मृति मात्र रह गए हैं।”(लोहिया
के विचार,सं.-ओंकार शरद,लोकभारती
प्रकाशन,छठवां संस्करण:2008,पृ-254-255)इस
स्थिति में यदि कोई भी व्यक्ति अथवा संगठन मिथक को ही इतिहास के रूप में स्थापित
करना चाहे और उसी के आधार पर लोगों को गुमराह करे तो एक इतिहासकार के लिए उस मिथक
के स्थान पर इतिहास को प्रतिष्ठित करना और विश्वसनीय रूप में जनता के सामने
स्थापित करना कितना दुष्कर कार्य हो सकता है इस बात का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा
सकता है।इसकी पुष्टि भारत और पाकिस्तान के प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में लगाई गई पाठ्य
पुस्तक को देखने से हो जाएगी। यह स्थिति तब है कि जब इस देश ने वर्ष सड़सठ वर्ष
पहले ही विभाजन और विस्थापन का वो मंजर
देखा है जैसा त्रासद उदाहरण इतिहास बहुत कम देखने को मिलेगा। ऊपर से हास्यास्पद
स्थिति तब हुई जब इलाहाबाद कोर्ट ने उसी
को आधार बनाकर बाबरी मस्जिद को तीन भागों
में बाँट देने का अपना इतिहासविरोधी निर्णय दिया। लेकिन उस विषम स्थिति में भी
भारतीय इतिहासकारों ने अपने इतिहासकर होने का दायित्व समझा और उसका विरोध किया।
उनके इस महती कार्य को एरिक हॉब्सबाम ने कुछ इस तरह याद किया है-“मुझे लगता है कि
बाबरी मस्जिद विध्वंस ने वहाँ की हिन्दू पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में मदद की
लेकिन मेरे मित्रों ने इतिहासकार का कर्तव्य तो निभाया ही।”(पृ-22)
मिथक को ही आधार बनाकर राष्ट्र और राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाओं को स्थापित किया जाता
है जिसमें इसे अति प्राचीन संस्था के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। बक़ौल एरिक
हॉब्सबाम “अस्मिता की राजनीति के लिए और गढ़े हुए झूठ जरूरी हैं। इन्हीं के
आधार पर आजकल लोगों के समूह मानव जातियों, धर्मों
या अतीत अथवा वर्तमान राष्ट्र की सीमाओं के अनुसार अपने को परिभाषित करते हैं
।”(पृ-23)यह खेल अब झूठे इतिहास की जगह काल-दोष पर ज्यादा आधारित होता है। यह
तरीका मनोनुकूल इतिहास लिखने का सबसे बेहतरीन तरीका है । बेनेडिक्ट एंडरसन ने जिसे
कल्पित समुदाय कहा है,
उसकी निर्मिति के लिए ऐसे इतिहास लिखे जाते हैं जिसे किसी भी रूप में इतिहास नहीं
कहा जा सकता है।बक़ौल एरिक हॉब्सबाम आज इतिहासकारों की “सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक भूमिका है अपनी कला
का अभ्यास इस तरह करना कि वह
अंधराष्ट्रवादी और समूहिक अस्मिता भी तमाम अन्य
विचारधाराओं के लिए एक खतरा लगे
।”(पृ-317) वे ऐसा इसलिए कहते
हैं कि आज इतिहास में कहानियों को मिलाकर उसे भी इतिहास का रूप देने का काम कुछ
लोग धड़ल्ले से कर रहे हैं।इस तरह का लेखन कुछ खास लक्ष्यों से प्रेरित होकर किया
जाता है जिसे साहित्य तो माना जा सकता है लेकिन इतिहास बिलकुल नहीं। यदि हम एरिक
हॉब्सबाम के इस वक्तव्य पर गौर फरमाएँ तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है-“इतिहास
अगर कल्पनाशील कला है तो वह ऐसी है जो गढ़ती नहीं है बल्कि चीजों को संयोजित कर
देती है। दोनों के बीच का फर्क किसी गैर इतिहासकार को शेख़ी बघारने वाला और तुच्छ
मालूम पड़ सकता है । खासकर उन्हें जो ऐतिहासिक सामग्री का इस्तेमाल अपने खुद के
मकसद के लिए करते हैं। ”(पृ-315) इसलिए इस तरह का लेखन उन लोगों के बीच
काफी लोकप्रिय हुआ जिसका प्रत्यक्ष संबंध इतिहास से नहीं है।
ज्ञान की दुनिया में इस प्रवृत्ति का उदय ‘उत्तरआधुनिकता’ के आगमन के साथ हुआ।
उत्तरआधुनिकता ने तमाम उन मूल्यों और विचारों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया जो ‘आधुनिकता’
के प्राणतत्व थे ।हम जानते हैं कि आधुनिकता का जन्म पश्चिमी ज्ञानोदय की कोख से
हुआ था। आधुनिकता ने जिस सामूहिकता ,तार्किकता,
वैज्ञानिकता को महत्व दिया था,उत्तरआधुनिकता
ने उन मूल्यों ,विचारों को समकालीन सामाजिक
समस्याओं को सुलझाने के लिए अपर्याप्त माना। उत्तरधुनिकतावादियों ने कहा कि हम
उन्हीं समस्याओं और समाज के उसी हिस्से को केंद्र में लाने का काम कर रहे हैं जिन
समस्याओं का निदान खोजने एवं समाज के जिस
हिस्से को केंद्र में लाने में आधुनिकता असमर्थ रही है।इसी को आधार बनाकर उत्तरआधुनिकता
ने अपने को स्थापित किया। अब हम देखते हैं कि इतिहास लेखन में जिस तथ्य को
सर्वाधिक महत्व प्राप्त था उसी को उन्होंने मात्र बौद्धिक निर्मिति माना। इनके लिए
तथ्य और कथा ,वस्तुनिष्ठ सच्चाई और
अवधारणात्मक बहस में कोई अंतर नहीं है। जो लोग इनमें अंतर करते हैं उन्हें ये
संदेह की नजर से देखते हैं।अर्थात् ये संदेह करने वालों पर संदेह करते हैं। एरिक
हॉब्सबाम के अनुसार उत्तरआधुनिकतावादियों का मानना है कि “अगर जो सच है और
जिसे मैं मानता हूँ कि सच है के बीच कोई साफ फर्क नहीं है तो यथार्थ का मेरा अपना
निर्माण भी आपके या किसी अन्य के जैसा ही है। इसलिए कि ‘विमर्श
दुनिया का निर्माता है न कि उसका दर्पण।
”(पृ-314)अर्थात् दुनिया जैसी भी है उत्तरआधुनिकतावादी उसकी व्याख्या अथवा
विश्लेषण नहीं करते बल्कि वे उस दुनिया को अपनी
तरह से गढ़ते हैं । इस काम को अंजाम तक पहुँचने के लिए सहकारिता पर आधारित
पाठ का सहारा लेते हैं जिसमें न तो तथ्य महत्वपूर्ण होता है न लेखक न ही पाठक और न
ही कोई तीसरा अन्य ही।पहले लेखक के मन्तव्य को केंद्रीय महत्व प्राप्त था
उत्तरआधुनिकता ने लेखक के समान ही पाठक के मन्तव्य को भी महत्वपूर्ण माना। पहले
पाठक पूर्ण रूप से लेखक पर आश्रित था किंतु उत्तरआधुनिकता इसी आश्रय को सहकारिता
में तब्दील कर दिया।इस स्थिति में “तो फिर कई मुमकिन वृत्तान्तों में से कोई भी
विशेषाधिकृत नहीं माना जा सकता है। यह अकारण नहीं है कि इन विचारों ने उन
लोगों को खासकर आकर्षित किया है जो खुद को किसी- न -किसी समूह की वर्चस्वकारी संस्कृति द्वारा हाशिए पर फेंक दिये गए समूहों
के नुमाइंदे के रूप में देखते हैं और श्रेष्ठता के जिसके दावे को चुनौती देते हैं।
लेकिन यह गलत है। ”(पृ-315) खैर है कि इस प्रवृत्ति ने इतिहास को उतना
कुप्रभावित नहीं किया जितना कि साहित्य और समाज शास्त्र को। इसलिए हम देखते हैं कि
ज्ञानोदय ने जिस सामूहिकता को प्रतिष्ठित किया था वह कई तरह की अस्मिताओं में
विभक्त हो चुकी है। आज साहित्य में जो कई तरह के विमर्श चल रहे हैं उसका मूलाधार
यही है।
इसी उत्तरधुनिकतावादी स्कूल से किसी न किसी रूप रूप में जुड़े चिंतकों ने अंतवादी घोषणाओं का सिलसिला चलाया जिसकी एक
घोषणा थी – ‘इतिहास का अंत’ । इस अंतवादी
जुमले के उद्घोषक थे प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान फ्रांसिस फुकुयामा । इस जुमले
का एलान उन्होंने 1989 में सोवियत संघ के विघटन के समय किया
था। लेकिन समझने की जरूरत यह है कि जब उन्होंने ऐसा कहा तो उसका तात्पर्य
क्या था ?इस जुमले को
समझने के लिए इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानना होगा। हम जानते हैं कि द्वितीय
विश्वयुद्ध के पश्चात् वैश्विक मानचित्र पर दो बड़ी महाशक्तियों(अमेरिका और सोवियत
संघ ) का उभार हुआ जो क्रमशः पूँजीवादी एवं समाजवादी विचारधारा के अनुयायी
राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । दोनों महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई
थी । स्थिति ऐसी बन चुकी थी मानो युद्ध कभी भी हो सकता है । लेकिन यह युद्ध हुआ
नहीं क्योंकि दोनों परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे। इस स्थिति में प्रत्यक्ष युद्ध का
अर्थ था पूरी दुनिया का कुछ ही घंटों विनाश। इस सच्चाई से दोनों ही महाशक्तियाँ
परिचित थीं। इसलिए युद्ध आमने सामने न होकर राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर लड़ा जा
रहा था । किंतु इसी युद्ध की आशंका में पूरी दुनिया 1939 से 1989 तक झूलती
रही। दोनों महाशक्तियों ने भय की राजनीति के बल पर ही लगभग पूरी दुनिया को दो
हिस्सों में बाँट दिया। इससे अलग तीसरी दुनिया के ही कुछ देश बचे हुए थे
जिन्हें गुटनिरपेक्ष के नाम से जाना जाता
है। किंतु जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो वह एक देश का ही विघटन मात्र नहीं
था बल्कि एक मूल्य और विचारधारा का भी विघटन था। इसी को आधार बनाकर फुकुयामा ने
इतिहास के अंत की घोषणा की । उनके अनुसार सोवियत संघ के विघटन का अर्थ था इस
दुनिया से समाजवाद का अंत हो जाना। इसलिए उन्होंने कहा कि आदिम समाजवाद, सामंतवाद और
पूँजीवाद तक का ऐतिहासिक विकास और उसकी व्याख्या तो ठीक है किंतु मार्क्स ने जिस
समाजवाद की बात कही थी वह अब कभी नहीं आने वाला है।अब इस दुनिया का आगे जो भी
स्वरूप होगा वह पूँजीवादी ही होगा। यदि उसके बाहरी आवरण में यदि किसी भी प्रकार का
कोई परिवर्तन देखने को मिलेगा भी तो पूँजीवाद का ही एक बदला हुआ रूप मात्र होगा। लेकिन
क्या सच्चाई उतनी भर है जितनी फुकुयामा ने कहा था? निस्संदेह
कहा जा सकता है कि सच्चाई उतनी भर नहीं है। बक़ौल एरिक हॉब्सबाम “अक्टूबर
क्रांति द्वारा शुरू हुए प्रयोग का पतन निश्चित तौर पर एक इतिहास का अंत था। वह
प्रयोग अब दोहराया नहीं जाएगा। लेकिन वह प्रयोग एक उम्मीद का प्रतिनिधित्व करता था
। कम से कम प्रारम्भ में। वह उम्मीद मानव आकांक्षा का स्थायी हिस्सा बनी रहेगी।
बीती सदी में दुनिया में मौजूद भीषण सामाजिक अन्याय से साम्यवाद को उसकी ऐतिहासिक
शक्ति मिली थी, वह अन्याय नई सदी में
कम नहीं हो रहा है। लेकिन क्या वह ‘इतिहास का
अंत’ था जैसा कि फुकुयमा ने 1989 में एलान
किया था ?” (पृ-324)आज
हम यह कहने कि स्थिति में हैं कि वह उस रूप में इतिहास का अंत कतई नहीं था जिस रूप
में फुकुयामा ने उसे स्थापित करने की कोशिश की
थी। बाद में अपने उस जुमले पर खुद फुकुयामा ने अफ़सोस जाहिर किया था। इसे एरिक हॉब्सबाम के इस वक्तव्य
से समझा जा सकता है। जब वे कहते हैं कि-“अपने उस जुमले पर आज फुकुयामा को बेशक अफ़सोस
है । उन्होंने दोहरी गलती की थी । इतिहास के शाब्दिक अर्थ में वह सब इतिहास ही है
जो अखबारों की सुर्खियों और टेलीविजन की न्यूज़ बुलेटिनों में आता है। इस अर्थ में इतिहास
1989 के बाद से जारी है । वह भी पहले से ज्यादा नाटकीय अंदाज में।”(पृ-324)आज
भी दुनिया की बड़ी महाशक्ति अमेरिका अवश्य है किंतु सिर्फ अमेरिका ही नहीं है । इस
बीच कई बड़ी महाशक्तियाँ वैश्विक मानचित्र पर उभरी हैं। आज शक्ति का केंद्र अमेरिका
और यूरोप से धीरे -धीरे एशिया की तरफ खिसक
रहा है। लेकिन उस तथाकथित महाशक्ति के द्वारा वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश आज भी बदस्तूर जारी है। जिस तरह से
अमेरिका ने जैविक एवं रासायनिक हथियार को आधार बनाकर इराक में कहर बरपाया है उसी
तरह आतंकवाद को आधार बनाकर अफगानिस्तान को लगभग ध्वस्त कर दिया है। पूरी दुनिया इस
अमेरिकी अमानवीय कुकृत्य को चुपचाप देखती रही है। जिस स्तर पर उसका प्रतिरोध होना चाहिए वैसी
संतुष्टि प्रदान करने वाली सक्रियता दिख नहीं रही है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि
प्रतिरोध हो ही नहीं रहा है। बक़ौल एरिक हॉब्सबाम “नियतिवाद चाहे मार्क्सवादी हो या
गैर मार्क्सवादी,उसका कोई ऐतिहासिक औचित्य नहीं है। ऐसा मानने
का तो नहीं ही है कि विश्वव्यापी विकास एक ही दिशा में और एक जैसा
होगा।”(पृ-325)इसलिए अमेरिका समूची दुनिया के भविष्य का जो स्वप्न देख रहा है वह
कल्पना मात्र बनकर रह जाएगा क्योंकि जिन संसाधनों के बल पर वह पूरी दुनिया को
जीतने की ख़्वाहिश रखता है उन संसाधनों की भी अपनी सीमा है। निकट भविष्य में सिर्फ
एक अमेरिका ही नहीं रह जाएगा बल्कि कई अमेरिका वैश्विक पटल पर अपने आपको स्थापित
करने को बेचैन दिख रहा है। इसलिए जो लोग इस मुगालते में हैं कि इतिहास का
अंत हो गया उनके लिए एरिक हॉब्सबाम का संदेश सुनना महत्वपूर्ण होगा कि “ऐसा मानना
आखिरी कल्पनावादी परियोजना होगी जो पिछली सदी की खासियत थी। इक्कीसवीं सदी को
जरूरत है सामाजिक उम्मीद और ऐतिहासिक यथार्थवाद की ।”(पृ-325)आज
सम्पूर्ण भारतीय समाज जहाँ एक तरफ जातिवाद,क्षेत्रवाद,धार्मिक एवं
सांप्रदायिक उन्माद और भाषाई समस्या से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ गरीबी,बेरोजगारी,यौन हिंसा
जैसी समस्याओं का गढ़ बना हुआ है। जिस राज्य की तरफ कभी आम नागरिक सर्वाधिक आशा भरी
नज़रों से देखा करते थे वही आज अपने समस्त उत्तरदायित्वों को तिलांजलि देकर पूँजी के पिछलग्गू की भूमिका में दिख रहा है और जनविरोधी
कार्यक्रमों को अपनाने में संलग्न है।वहीं दूसरी तरफ इसका प्रतिरोध भी हो रहा है । कोई भी प्रतिरोध
बिना सामाजिक उम्मीद के संभव नहीं है।ऐसे में सामाजिक उम्मीद प्राण वायु के सदृश
काम करता है। आज बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग समूची दुनिया में इस बात
की आम सहमति बनाने के प्रयास में लगा हुआ है कि दुनिया अमेरिकी पूंजी और अमेरिकी
संस्कृति की गोद में में ही सुरक्षित रह सकती है। हॉब्सबाम ने इसे ही ‘आखिरी
कल्पनावादी परियोजना’कहा है । ऐसी ही
स्थिति में प्रतिरोधी शक्तियों को ऐतिहासिक यथार्थवाद की जरूरत पड़ती है जिससे
दृष्टि ग्रहण कर इतिहास विरोधी कल्पनावादी विचारों की जमकर आलोचना की जा सके।
इतिहास हमें सिखाता है कि यह दुनिया न कभी रुकी है और न ही रुकेगी ,इसकी गति को
अवरुद्ध करने की चाहे जितनी भी कोशिश वर्चस्वशाली शक्तियाँ कर लें। एरिक हॉब्सबाम
ने प्रतिरोधी शक्तियों के दृष्टि -निर्माण में महती भूमिका निभाई है। इसलिए ‘इतिहासकार की
चिंता’से
साक्षात्कार करना आवश्यक हो जाता है। उनके जैसे इतिहासकारों को पढ़कर ही लगता है कि
आज भी इतिहास मानो निराला के शब्दों में कह रहा है – अभी न होगा मेरा
अंत........... ।
-संजीव
झा
शोध छात्र
साहित्य विभाग
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र